इतना 
आसान नहीं 
बांधना
आकाश को 
उसका नीलापन 
इक भूल 
क्या- आकाश ही 
अन्तरिक्ष है
अन्तरिक्ष 
हमारे अन्दर तक 
खीचे आकाश का 
उत्कर्ष जो 
या फिर 
सूर्य-रश्मियों से  
उत्पन 
कोई 
ब्रह्माकार वृति केवल |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
चिड़िया भी 
पहाड़ों -सा रंग बदलती 
हवा जानती है 
छूती नहीं उसे 
पक्का होने तक...
ठीक वैसे ही 
जैसे तितली 
बचती 
अपने घर की ओर
लौटते वक्त
खजूर के 
नुकीले पत्तों से |
 
 
 
धूप से पहले 
छू लेना है 
मुझे 
पानी में घुला 
मंजीठे का रंग 
ज्यदा कुछ छिपाने को 
क्या इसमें 
पार-पाकर जैसे 
विश्वास के 
सन्मार्ग में 
मुग्ध 
लाल 
और क्या |
 
 
 
हरे रंग को 
हवा 
उलट-पुलटकर 
नीला कर देती है 
बिना डुबोये ही 
पूरा का पूरा आसमान 
मोरकंठी - सा 
मनमोहन 
तब भी भगवन 
उससे यही कहते 
तुमने अभी 
"किया ही क्या है"
हम कुछ भी 
नहीं जान पाते 
हवा चुपचाप  
बह निकलती है 
कार्तिकेय की 
खोज में |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
कितना मुश्किल 
जान पड़ता 
असहकार 
प्रिय-अप्रिय के बीच 
अपनी ही 
चित्तवृतियों का नियमन 
आप 
मन का स्वामी 
आप ही 
अनुचर भी
स्वयमेव विनष्ट होने तक 
छोड़ दो उन्हें यूँ ही  
स्थिर हो जाने दो 
देर-सबेर 
संघर्षों के पार 
सचेतन 
दृढ 
उदासीन
असहकार |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
सब कुछ 
माटी
तो फिर 
माटी का मोल 
माटी से क्यों 
इतना आसान नहीं 
ज्यदातर लोगों को तो 
जाते समय समझ आता 
और कुछ 
नासमझे ही रह जाते 
माटी से माटी 
होने के लिए 
कुम्हारों की चाकों पर 
निरंतर 
घूमते रहते 
फिर रौंदे 
फिर पकाए जाते 
फिर माटी से माटी 
होने के लिए |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
ले जाएगा 
वहाँ तक
जहाँ मिथ्या 
लगने लगती 
उपाधियाँ सारी
किसी भारमुक्त 
पंछी की तरह 
उन संख्याओं को 
पीछे हटाकर 
क्या 
तैयार हो तुम 
अपने देवता बदलने को 
या फिर 
बाँधोगे सीमाओं में 
बोध की उस 
अनावश्यक यथार्थ को 
यूँ ही | 
 
 
 
कुछ भी 
अधिकार नहीं 
मुझे 
पूछने का कि 
तुम्हे 
कहाँ स्थापित होना है 
जनता हूँ 
मेरे भाई 
तुम आषाढ हो 
निश्चित रूप से 
कल्पनाओं से अधिक 
शक्तिशाली 
ज्ञानवृद 
आषाढ
 
 
 
            
        
          
        
          
        
किसी ने पूछा
उससे की 
आप कहाँ के हैं 
वह निःशब्द  
घोड़े से उतरकर
बैठ गया
खेजडे वृक्ष के नीचे 
-समाधिस्थ- 
कुछ छिपकर 
निकल गए  
कुछ लौट गए 
बिना तर्क किये ही 
कहते हैं 
खोजते-खोजते वहाँ
एक ने पाया 
सिंहासन 
दूसरा था मग्न 
शालिग्राम में |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
आश्चर्य चकित हूँ 
तुम्हारे 
रहस्यों से 
हे ! पृथ्वी 
समतल तुम्हारी  
भूमि 
समुद्र गोलाकार 
क्यों ?
 
 
 
मै
रखवाली करता 
परोसता हूँ 
अग्नि 
चिताओं को 
मेरी स्मृति में 
इससे ऊँचा 
कुछ भी नहीं ,
सच मानकर बंध जाना 
तीन काल का झूठ 
कहता
मत आना पास 
पीपल का कोटर छोड़ 
इस मृत्यु लोक में 
चाटते कुत्ते जहाँ
झूठी पत्तलें 
देवताओं की 
सिर्फ देह 
वे तो अपराधी 
आत्मा के |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
एक
सवाल है 
सधा सवाल 
क्या करूँ 
उछाल दूँ 
किसी गेंद-सा 
या 
बीज-सा 
रोप दूँ उसे 
रेत में 
तुम चाहो तो 
खोल देता हूँ 
अंतिम सिरे तक 
किसी अजनबी का नहीं 
सीधा-सीधा हमारा 
अपना सवाल |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
सुखाये थे
कुछ रंग 
धूप में 
शब्दों के संग,
हवा बहा ले गयी 
जिन्हें... 
अब कहती फिरती है 
क्या कसूर मेरा
निर्वाद 
जो बहती 
पहले से 
कहीं ज्यादा 
ऊँचे 
आकाश में |
 
 
 
            
        
          
        
          
        
अब तो 
सिर्फ 
मृत्यु ही 
बता सकती 
उसका पता 
किसी स्मृति में 
नहीं वह 
वहाँ कोई 
बारीक़-सा
बिन बोया हुआ
अमृत बीज भी नहीं | 
 |
 
 
 
बहुत सीधा 
चल-चल के 
कहने - सा 
ठगने दो उन्हें 
कृतार्थ हैं दोनों  
जानते 
उस आवशयक 
विश्वाश से 
की कौन 
ठगा गया 
अपने-अपने 
सुख त्यागकर 
उन अंतिम
संकेतों से पूर्व 
ठीक ही तो है 
ठगा जाना 
कोई बुरी बात नहीं |