गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

अपनी ही लय में


जोड़ती
संगत लहर सी
अपनी ही लय में
निर्भय हो
धकेल देती
खड़ी दीवार को

मालूम पड़ता क्या कभी
हर रोज
पा - पाकर
अपने  पग
नीचे उतरता है
वह चाँद

कभी पीर
कभी बैरागी
कभी आहें भर
दौड़ जाता
बचपन में
दीखता
पेड़ की तरह
उपस्थित
सचमुच
हाथों में लिए रंग
खडा रहता है
हर तट

तीर
पादुकाएँ
नीले घोडों की बागडोर
और
हरसिंगार की
प्रतीक्षा में

1 टिप्पणी:

  1. वाह अमित जी बहुत ही खूबसूरत रचना ...शब्दों का चयन और उपयोग...कमाल है...लिखते रहें..शुभकामना

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