शनिवार, 12 सितंबर 2009

आकाश - पाताल के मध्य

उस आंशिक
सत्य के सहारे
करते
अज्ञात आवरणों का
विसर्जन,
अपनी ही ध्वनि में
अपने अंतर में
पूर्वकथा का स्मरण

आकाश - पाताल के मध्य
पर्यंक मुद्रा में
सौंदर्य से सजल
वह महावृक्ष
अधीर हो जाता है

समय समय पर
किसी उत्सव मूर्ति  के 
देशाटन सा
मनमाना वरदान देता

परिष्कृत वाक्य
जहाँ
निर्मल नीर सा
रुनझुन बावरा बन
आकारहीन
अंतर्मुख संयोग को
सौप देता,
महापथिक की
दृष्टी से उपजी

सिद्ध्मणि

आकाश - पाताल के मध्य
उस आंशिक
सत्य के सहारे

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