शनिवार, 26 सितंबर 2009

आजीवन मौन में


कहते हैं
सूरज के साथ साथ
इक बहुत बड़ा
संसार डूब जाता है
जहाँ
पूर्वी हवाएँ
वृताकार रेखाएँ
और
सरकंडों पर पसरी धूप
मल्लाह के अंगोछे से
लिपट जाती है
श्रुतानुश्रुत कर देती
धाराओं को
बर्फ सी सफ़ेद आँखे
उखाड़ फैंकती है
खलुच का रेखागणित
पुकारता
देता जो आवाज़
सिरजनहारे  को
यथा ही नहीं
असंख्य लोक
परत दर परत
भानुमती का पिटारा खोलते
बटोरते कभी
स्वर्ण पंख
तो कभी
दौड़ जाते
आमूर्तित अश्व से
उसी मुग्धा में
वशिभूत हो
खिचे आते बारम्बार
पिया कभी था जिसने
अक्षयता का
घूंट
समासीन 
आज
वह
आजीवन
मौन में

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