इतनी दक्षता
स्वयं संपृक्त करता है
किसी लय पर
कहीं न कहीं
उस परोक्ष का अवगान
वृथा नहीं होती
वरेण्य पितरों की उपासना
स्वर्जित अनुभूतियों के सहारे
भस्मवत लोक दर्शन
आखिर
कितनी लम्बी है डोर
निरंतर आने जाने की कहानी
प्रतिकृतियों के पार
फैले कोहरे को मथ
फिर नये
नेत्रों को खोजने की लालसा
कहाँ केन्द्रित वह
धूप-छाँव
उत्पन करने वाला
महाभूत
अनुरक्तित ओज़
कहाँ वह
प्रक्षालित
स्वयं संवेध
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