हज़ार अनुभव
सदैव
भीतर ही भीतर
किसका अधिकार
स्मृतिरूपी भीगी देह पर
ऐसा फैनिल
मानो ज्वार ,
निग्रही आँखे
अचानक गलने लगती हैं
निरुत्तर
रह जाता
सरोवर भी,
कितने ही
कन्धों से गुजरता
पराजय का परिचय
ठहर जाता
महाद्वार पर
इक-इक पल बाद
इक-आध
वचन कहता
डबडबाये नेत्रों के
साये में
अपनी उंगलिओं से
महसूस करता
रेत में छिपी
चिनगारियाँ,
कैसे
कुल देवताओं से
क्षेत्रवनवास का
शुभाशीर्वाद चाहता
कैसे
पहली बार
किसी आँचल में
पनहा लेता
हिचकोले देने वाला
पूरब दिशा का
सेनानी
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