AMIT KALLA
शनिवार, 26 सितंबर 2009
कितना फासला
कितना
फासला
हमारे और देवताओं के
बीच
पलक भर का
या फिर
उससे अधिक
राजधानी की सड़कों सा
कितना
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अनुभव स्मृति मौन !
काला कौवा
कितना फासला
आजीवन मौन में
उहापोह
झिलमिल फुलझडी
रेत वह समुद्र ही
अव्यय रुद्र: का स्तवन
ले उडी
शब्द या अर्थ
पूर्ण होने दो
तथास्तु
मुझे भी कुछ
देखते देखते
इक आचमन
कुछ दाने मकई के
खोजते रहो
बीज सूरज के
खेल खेल में
नाम तो कागजों पर
जोगन का जोबन
आकाश थामता
कोई भेद बात नहीं
रह रह कर गुज़र जाता
कोयले सा
महानिद्रा की प्यास
सूर्यकांतमणि का इंतजार
नामकरण सी डुबकियाँ
पूरब दिशा का सेनानी
अनागत काल से
क्यों
तीर्थ हो जाने का विधान
अशेष स्मरण
बीती रात से पहले
दुःख , विछोह का
मनहट कौन साधता,
बारूद का इत्र छिडक
कोई खलील
एक एक को वर
कौडियों सा पलटता
सफ़ेद सपना
शब्द सुगंध में...
चिरंतन श्यामल
स्वप्न कि अंतेष्टि
भागती रात को
पानी में पानी
कभी कम कभी ज्यादा
दो फाँक
कौन गंगाजली उठाये
दूसरे जैसे होने कि भाषा में
अपने ही साहिब में पाता है
नैनों का क्या
करतब करतार के
धसते पगों के साथ
पारस की चिनगारी
उर्ध्वगमन
चुपचाप ही
चित्ररथा के स्वप्न सा
साँची का सुनहरा सूरज
मौन ...!
दिग्विजय की बातें
हार
नहीं जानता
आकाश - पाताल के मध्य
किसका सगा
लगातार
ध्यान मग्न
कैसी दुविधा
पलक - पलक अगहरूप
हिये का बैरी
दीर्घकाल तक
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