छिपाती
अपना दुःख
टटोल टटोल कर
हथेलियाँ
आप चौकन्नी,
कैसे कोई
विरोध करेगा,
औदुम्बर वृक्ष का
अकारण ही कसौटी कसेगा,
झूटे लगते उलटते दांव
मोह के आक्षेप जैसे
क्या
कभी उल्लेख होता है
प्रतिज्ञा में बंधे
एक एक दिवस का
पम्पासरोवर पर पहरा देती
उन परछाइयों का,
अविकारी नियंता की
दृष्टी की आस में
नामकरण सी डुबकियाँ
लगालगाकर
बारम्बार
खोजती जो
मूल देह अपनी
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
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