रविवार, 13 सितंबर 2009

दो फाँक

दो फाँक
नज़र आती
चट्टान,
भुरभुरा जाता
ख़्वाब गडरिये का,
पानी
लहर लहर चढ़ता है,
लौटती हवा सिद्ध करती
अपनी अहमियत

कई कई जन्मों तक
गहरी राख़ जैसी
आप बनती
आप ही बिखरती है
नशीले रंगों में
रची बुनी
दिशाएं,
तमाम दावेदारी के
बावजूद
उन्ही पुतलिओं के
इर्दगिर्द
अपना
भुवन तलाशती है
जहाँ
दो फाँक
नज़र आती 
चट्टान

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