नैरन्तर्य
स्वीकारा गया सत्य,
चुपचाप ही पकड़ता है
बुन देता
रिश्तों के ताने- बाने में,
अक्सर
परखा भी जाता,
कहता
रहने दो उस रहस्य को
जहाँ दुबकी
जन्मजात अबोधता,
भीतर मन की चुप्पी
और एक स्वप्न के
साबुत रहने की चाह,
किसी शब्द संवाद सा
मुँह माँगा वरदान
न जाने कब से बहता
ये तीरथ का पानी,
न जाने कब से चलता
ये आवागमन का खेला,
न जाने कहाँ
प्रतिकृत होता है
अपनी चेतना के
सहारे
फिर देखता
करतब,
करतार के
नैरन्तर्य
रविवार, 13 सितंबर 2009
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