शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

पूर्ण होने दो


पूर्ण
होने दो
रिक्तता
दिगंत्व्यापी विस्तार में
नये दृश्य बनने दो

निराधार है लड़ना
अग्निशिखाओं से
जटाओं से
रिस-रिसकर जो
मशनों की भस्म
बन जाती
आप ही
खींचती
अपना स्वामी
मरुथल में

खामोशी से धर दबोचती है

मुश्किल है
बहुत मुश्किल
झेलपाना
हज़ार सूर्यों को
वृथा ही
प्रायोजित लोक में
नहीं बुनी जाती
रिश्तों की चादर
जहाँ 
सूर्यास्त और
सूर्योदय के बीच
नहीं रुकने देते
वे
इक पल भी
अधिक
किसी
शब्द को
पूर्ण   
होने दो
रिक्तता

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