चुपचाप
संभाल लो
अपने अपने
जंतर
धीमे स्वर में
बदल लेता बनावट
जादुई दस्तखत
ख़बरदार करता
उत्तरार्ध में बसे
सागवान के संग- संग
ठीक- ठीक जाना जाता
अपनी
सुगति के सहारे
शब्द का शब्द
दिवस का दिवस
रात की रात
मथता
जतन कर
सिंहासन पर काबिज
सूर्यसुता के जल से
काजल चुराता है
कितनी
सटीक लगती
पराजय की पुष्टि
कमाल की पंखुडियों से
चिपके अग्निरसायन सा
वशीभूत ,
क्या कहीं कोई
अवसर ,
बलभद्र ,
द्वारिका
सच पूछो तो
बिखरा स्पर्श
जयजयकार सा
कृतकार्य साबित होता है
कहीं
चुपचाप ही
शनिवार, 12 सितंबर 2009
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