शनिवार, 26 सितंबर 2009

उहापोह

जगह-जगह
उहापोह
करते करते
कदाचित
धंस जाता
असंभव व्यापार
कांट छाँट कर
स्वप्न दुरुस्त करता है
काफी हद तक
दुनिया आज भी
वैसी ही है

दूर की बात नहीं

हर तीसरे प्रहर आता है
अपने डेरे पर
बीज आगमन के समाचार सुनकर
जलाशय में फैंक देता
चाबियाँ
क्या कभी
कृपा दिखलाई
ईंट और पत्थर का
अनुमान ही लगते रहो तुम
निकल गया वह तो
फिर से
अपनी
तीर्थयात्राओं पर  

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